जरूरत है जिम्मेदार पर्यटन की
घूमने-फिरने से समझदारी बढ़ती है। विकास होता है। बोरियत पीछे छूटती है। यदि पर्यटन पहाड़ों पर हो तब तो कहने ही क्या। मन शांत होता है। प्रकृति का संग मिलता है। नवीन विचार आते हैं। तन-मन नयी ऊर्जा से भर जाता है। कायदे में तो हर किसी को साल में कम से कम एक बार हफ्ते-दस दिन के लिए किसी दूर स्थान पर घूमने चले जाना चाहिए। ऐसे ही, हर तीन-चार महीने में कोई छोटी यात्रा कर लेनी चाहिए।
यदि अच्छी सोच लेकर पर्यटन पर निकला जाये तो आनंद ही आनंद है। अपना भी भला और जहां आप जा रहे हैं वहां के निवासियों का भी भला। परंतु कुछ मनचले लोग पर्यटन को मनमाने और अराजक व्यवहार का परमिट मान बैठते हैं। अनैतिक ढंग से पैसा कमाने वाले लोगों में प्रकृति व आमजन को नुकसान पहुंचाने की प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है। ऐसे लोग सडक़ों, होटलों और पर्यटन स्थलों पर दिक्कतें खड़ी करने से नहीं चूकते।
उत्तराखंड में केदारनाथ, बद्रीनाथ एवं हेमकुंड जैसे पवित्र स्थानों पर जो कुछ हुआ है, उससे हमें बहुत सारे सबक लेने की जरूरत है। ये देव स्थान हैं। परंतु साधन संपन्न और आराम तलब लोगों ने इन स्थानों को ऐशगाह बना दिया। हिमालय के ये क्षेत्र प्राकृतिक तौर पर अत्यधिक संवेदनशील हैं। इन तीर्थों पर अधिक संख्या में लोगों और वाहनों की आवाजाही और वहां उनका ठहरना उचित नहीं है। धन के लालच में पंडित-पुजारी, होटल-रेस्टोरेंट, टूअर कंपनियां ऐसी दौड़ में लग गयीं कि इन्होंने समुद्रतल से हजारों मीटर ऊंचे पहाड़ों पर भी भीड़भाड़ का माहौल बना दिया।
केदारनाथ मंदिर में हर साल 175 करोड़ रुपये तक चढ़ावे में आते थे। सरकार, पुलिस व प्रशासन की भी जेबें भरी रहती थीं। वो भी बगैर किसी जिम्मेदारी के। पंडों, होटल व टूरिस्ट कंपनियों की तो चांदी थी ही। इनमें से किसी ने भी जिम्मेदारी का परिचय नहीं दिया। करोड़ों लोगों की भीड़ को देवस्थान पर बुलाने की इन्हें हमेशा ललक रही, लेकिन जरूरी इंतजाम करने की जिम्मेदारी इनमें से किसी ने नहीं ली। इन लापरवाहियों की पोल खुल चुकी है। परेशानी पडऩे पर धार्मिक, प्रशासनिक, सरकारी और मानवीय किसी तरह की मदद वहां उपलब्ध नहीं थी। पूरे घटनाक्रम में कहीं भी सरकारी अमले, प्रशासनिक अधिकारियों या पुलिस का कोई रोल नजर नहीं आया। सिर्फ और सिर्फ सेना एवं वायुसेना ने मुसीबत में फंसे तीर्थ यात्रियों को भोजन और सहायता उपलब्ध करायी।
बादल उत्तराखंड में फटेे या हिमाचल के किन्नौर में। प्राकृतिक आपदा के समय तत्काल उचित मदद पहुंचाने में सरकारें नकारा साबित हुईं। केंद्र सरकार का ढुलमुल रवैया भी सामने है। राष्ट्रीय स्तर पर आपदा प्रबंधन की कोई कारगर तैयारी अभी तक सामने नहीं आयी है। सब कुछ तबाह हो जाने पर अंतिम उपाय के रूप में सेना को लगा दिया जाता है। वो मुस्तैदी से अपना काम करती है। ऐसे में सबक यही मिलता है कि व्यक्तिगत स्तर पर भी आपदा प्रबंधन के छोटे-मोटे उपाय करके ही पर्यटन के लिए निकलना चाहिए। सरकारों के भरोसे रहे तो गये।
जिन स्थानों पर आप जा रहे हैं वहां प्रकृति को नुकसान न पहुंचाया जाये। मैदानी अपसंस्कृति से पहाड़ों को दूषित न किया जाये। प्रकृति के साथ मित्रवत व्यवहार हो। पर्यावरण को क्षति न पहुंचायी जाये। पहाड़ों को बीयर की बोतलों और चिप्स के खाली पैकेटों से कचराघर न बनाया जाये। निकलने से पहले मौसम की जानकारी ले ली जाये।
आपदा की स्थिति से निपटने के लिए अपने साथ कुछ जरूरी वस्तुएं अवश्य ले जी जाएं। किसी न किसी सार्वजनिक या सरकारी एजेंसी को सूचित करके जंगलों या पहाड़ों में जाया जाये, ताकि संकट के वक्त आपको खोजा जा सके या मदद पहुंचाई जा सके। दुर्गम यात्राओं के समय सूखे मेवे, पानी की बोतल, टॉर्च, जरूरी दवाएं, छोटा चाकू, चादर जैसी चीजें साथ रखनी चाहिए।
आपदा की स्थिति से निपटने के लिए अपने साथ कुछ जरूरी वस्तुएं अवश्य ले जी जाएं। किसी न किसी सार्वजनिक या सरकारी एजेंसी को सूचित करके जंगलों या पहाड़ों में जाया जाये, ताकि संकट के वक्त आपको खोजा जा सके या मदद पहुंचाई जा सके। दुर्गम यात्राओं के समय सूखे मेवे, पानी की बोतल, टॉर्च, जरूरी दवाएं, छोटा चाकू, चादर जैसी चीजें साथ रखनी चाहिए।
Contact: Narvijay Yadav, E: narvijayindia@gmail.com
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