मानसून : परेशानियों के पहाड़

मानसून समय से पहले आ गया। आने की खबर से ही मन खुश हो गया। बूंदाबांदी शुरू हुई तो और अच्छा लगा। तपती गर्मी से राहत मिली। बालकनी में चाय-पकौड़ी ने बारिश का आनंद और बढ़ा दिया। परंतु दो-तीन  दिन बाद ही त्राहिमाम-त्राहिमाम होने लगा। पहाड़ों पर पानी ने जो कहर बरपाया वो दुखद है। खासकर उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में। जान और माल दोनों का भारी नुकसान हुआ है। तीर्थयात्राओं में विघ्न पड़ गया। श्रद्धालु जगह-जगह फंस गये। मकान, दुकानें और वाहन ऐसे बह गये, मानो खिलौने हों। पहाड़ों का यही दर्द है।

बरसात हर साल होती है। कभी कम कभी थोड़ी ज्यादा। पर इस बार तबाही कुछ ज्यादा है। उत्तरकाशी में बादल फट गया। लगातार हो रही बारिश ने वहां जिंदगी को ब्रेक लगा दिया है। इससे पहले 1978 में बाढ़ और फिर 1991 में भूकम्प की त्रासदी झेल चुके ये पहाड़ फिर से घबराये हुए हैं। गंगा, मंदाकिनी, अलकनंदा और असी गंगा नदियां उफान पर हैं। ऋषिकेश में तो रामझूला के निकट शंकर जी की विशाल मूर्ति ही बह गयी। 


उत्तराखंड के लोग पहले अपने पिछड़ेपन के लिए उत्तर प्रदेश को दोषी मानते थे। अब उत्तराखंड की अपनी सरकार है। अपने पहाड़ में पला-बढ़ा मुख्यमंत्री है। फिर भी प्रदेश की अपनी समस्याएं हैं कि ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही  हैं। बिजली, पानी और सडक़ इनमें प्रमुख हैं। अंधाधुध पेड़ कटने से पर्यावरण को भारी नुकसान हुआ है। भवन निर्माण गतिविधियां पहाड़ों को लगातार क्षति पहुंचा रही हैं। टिहरी बांध ने अनेक गांवों की किस्मत डूब गयी।   

मानसून ने पहाड़ ही नहीं, मैदानी इलाकों में भी कहर बरपाया है। हरियाणा के यमुनानगर, करनाल, पानीपत और सोनीपत तथा उत्तर प्रदेश में सहारनपुर, उत्तराखंड में हरिद्वार, रुडक़ी व देहरादून सहित देश के अनेक हिस्सों में बाढ़ और बरसात से त्राहि-त्राहि मची हुई है। दिल्ली भी उफनती यमुना से पशोपेश में है।

हमारे देश में नेताओं को राजनीति की बाढ़ से ही फुर्सत नहीं मिलती। असली बाढ़ के बारे में सोचने को उन्हें फुर्सत ही कहां है। असम, बिहार, उड़ीसा आदि प्रदेश तो मानो बाढ़ झेलने के लिए ही बने हैं। बाढ़ आने पर हल्की-फुल्की कवायद कर ली जाती है, सिर्फ दिखावे के लिए। लंबे समय तक रोकथाम के लिए कोई स्थायी इंतजाम नहीं किये जाते। सडक़ों की हालत करीब-करीब हर जगह खस्ता है। 

पिछले दिनों कुल्लू-मनाली जाना हुआ तो पाया कि पंजाब से मंडी तक सडक़ बहुत बुरी हालत में है। ऊपर से एसीसी सीमेंट फैक्ट्री तक ट्रकों की लंबी कतारें आवागमन को और भी दुरूह बना देती हैं। हरियाणा में यमुनानगर स्थित दीनबंधु छोटूराम ताप बिजली घर के पास से गुजरती सडक़ ऐसी है कि अंगे्रजों की गुलामी भी अच्छी लगने लगे। उस रोड पर लकडिय़ों से लदे ट्रक और ट्रैक्टर ऐसे चलते हैं मानो बैली डांस कर रहे हों। बस ड्राइवरों को तो मानो आदत ही पड़ गयी है झटखोलों की। वहां गड्ढों के बीच सडक़ ढूंढनी पड़ती है। राज्य सरकार को इससे कोई मतलब नहीं। 

उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद से आगे आपको सडक़ कम, गड्ढे ज्यादा मिलेंगे। केंद्र सरकार  इंडिया शाइनिंग और इंडिया राइजिंग का प्रचार चाहे जितना मर्जी कर ले। परंतु बाढ़ से तबाह पहाड़ी प्रदेशों की दुर्दशा देखकर हर किसी को समझ आ जायेगा कि कितना विकास हुआ है और कितना बाकी है। आपदा प्रबंधन और सडक़-बिजली-पानी की मूलभूत जरूरतों को नजरअंदाज किया जायेेगा, तो हालात कमोबेश ऐसे ही रहेंगे।



Contact: Narvijay Yadav, E: narvijayindia@gmail.com

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