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अप्रैल, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सारा खेल ही भोंपू का है

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नशे की हालत में गाड़ी मत चलाओ। होश के बिना ट्वीट मत करो। सुबह-सुबह चार ट्वीट क्या कर दिये कि सिर मुंडाना पड़ गया सोनू निगम को। अपने ही घर में। अपने ही नाई आलिम हकीम से। वो भी मीडिया के सामने। कलकत्ता के एक मौलवी की दिली चाहत थी। लेकिन फतवा देकर मुकर गया पट्ठा। उसे टीवी पर आना था। काम हुआ और खिसक लिया। यही तो कमजोरी है टीवी की। कोई भी लटक लेता है चलती गाड़ी में।  तब सोनू के लंबे बाल होते थे। कुछ साल पहले। उनके  एक गीत का वीडियो शूट होना था। लद्दाख की नुबरा वैली में। इच्छापूर्ति गायित्री मंत्र के लिए। वीकॉन म्यूजिक की मनीषा डे ने फोन किया। लद्दाखी बच्चे चाहिए थे। मेरे अनुरोध पर महाबोधि स्कूल की बच्चियों को भेजा गया। लोबजांग विसुद्दा लेकर गये एक बस में। लेह में ट्रेवल प्लानर और नेचर फोटोग्राफर हैं। अच्छे से शूटिंग हुई। मैंने चंडीगढ़ से ही फोन पर सारा जुगाड़ किया था। सोनू को भी एसएमएस भेज कर गाइड किया। किधर जाना है, किधर मुडऩा है। इस तरह वे भिक्खू संघसेना से मिल पाये।  कुछ लोग तडक़े चार बजे ढोलकी-मंजीरे लेकर निकलते हैं चंडीगढ़ में। बड़ा सुकून मिलता है मॉर्निंग कीर्तन से। कोई पूज

क्या लिखूं आज? जाम लगा है।

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इतना कुछ हो रहा है। कुछ भी नहीं हो रहा। समय बदल रहा है। सब रुका पड़ा है। चुटकी बजाते चीजें हाजिर हैं। नहीं मिलतीं, यही तो दिक्कत है। पैसा बहुत है इस देश में। बस पैसा ही तो नहीं है। जो चाहो वो खा लो। जहर मिला है हर चीज में। दूध, सब्जी, फल खाने चाहिए। क्यों, जहरीले हैं इसलिए?  गरमी रिकॉर्ड तोड़ रही है। तो क्या, कोक पेप्सी है न। पियो, फिर डाइबिटीज झेलो। कैंसर भी तो चलन में है।  बाजार पटे हैं कैंसर की चीजों से। हर चीज में कैमिकल। हर चीज से कैंसर। अखबार यही बताते हैं। उधर इनके विज्ञापन भी छापते हैं। तभी तो अखबारों पर संकट है। सोशल मीडिया सब खा गया। सबके हिस्से की खबर। सबके हिस्से का ज्ञान। सब ज्ञानी हैं। डाइबिटीज और मोटापे से परेशान भी। देखा-देखी में करते हैं शॉपिंग। शान बघारने को। नकली खाना। नकली जिंदगी। असली रोग। असली झगड़े।  क्यों नहीं होते शांत? कश्मीर से पूछते हो? भई, सीएम हो तो महबूबा मुफ्ती जैसी। कोई काम ही नहीं। हर काम पत्थरबाज करते हैं। पैसे मिलते हैं न। घर चलता है। सरकार कौन सा जॉब दे रही है? कामधंधे की जगह सेना लगा दी। अबदुल्ला के पास सॉल्युशन है। खाक सॉल्युशन है। कहत

कौवे ही क्या, सभी पक्षियों को जीने का हक है

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ननिहाल के गांव में बीते थे बचपन के दिन। ढाक के पत्तों से जूते बनाते थे हम। पाकड़ के चौड़े पत्ते की फिरकी। और खेतों की जुताई के समय मामाजी के साथ पूरा दिन ट्रैक्टर की सवारी। मटर के खेत में मस्ती करते थे। मीठी हरी मटर छील कर खाते थे। उसके नीले, बैंगनी चटख फूलों के बिछौने पर लेट जाते थे।  शमशान वाले पेड़ पास में ही थे। कभी कभार वहां किसी की चिता भी रही होगी। मैंने देखा किसी को नहीं। पर, उधर जाते हुए डर सा लगता था। रात तो छोडि़ए, दिन में भी। घने वृक्षों पर मोरों का बसेरा था। ओह, क्या बोलते थे वो। केऊ केऊ की आवाजें रात में बहुत आती थीं। और, तीसरे पहर को पुड़ुकिया की आवाज। अब हम उसे पेंडुकी कहते हैं। मटमैले रंग की इस चिडिय़ा को कुछ लोग फाख्ता भी बोलते हैं। उसकी आवाज बड़ी निराशाजनक होती थी। सुस्ताई सी दोपहरी। ढलता सूरज। ऊपर से खीज पैदा करने वाली कुकुऊकू.. कुकुऊकू। मुझे पेंडुकी नहीं पसंद। तभी से। पिता जी सरकारी शिक्षक थे। उनका तबादला होता रहता था। दबंग किस्म के थे। हाथ में बेंत। चमड़े का बैग। छोटी तराशी हुई मूंछें। ऊपर को काढ़े हुए बाल। किसी रौबदार दारोगा जैसे दिखते थे। तभी तो देर रात

फिर तो हिंदी की गंगा बहेगी

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हिंदी के लिए एक अच्छी खबर है। हमारे प्रधानमंत्री जी हिंदी में बोलते हैं। अब लगता है कि राष्ट्रपति भी हिंदी में भाषण दिया करेंगे। केंद्र सरकार के अनेक मंत्री हिंदी में बात करते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी जी की हिंदी तो लाजवाब है। एकदम संस्कृतनिष्ठ, शुद्ध हिंदी। सुन कर आनंद की अनुभूति होती है। वहां के पिछले दोनों मुख्यमंत्री हिंदी बोलते तो थे, लेकिन देहाती लहजे में। मायावती तो एक-दो लाइन भी बिना पढ़े नहीं बोल पाती हैं। मुलायम सिंह की हिंदी माशा अल्लाह। शब्द गोल-गोल होकर उनके मुंह में ही कुश्ती लड़ते रहते थे।   दरअसल, आधिकारिक भाषाओं पर संसद की समिति ने हिंदी को लोकप्रिय बनाने के लिए 117 सिफारिशें की थीं। छह साल बाद, इनमें से कुछ अब अमल में आने की संभावना बनती दिख रही है। राष्ट्रपति ने कई सिफारिशों पर अपनी सहमति जता दी है। यदि यह निर्णय लागू हो गया तो सरकारी कामकाज में हिंदी का दबदबा बढ़ेगा। नेता और अधिकारियों के लिए हिंदी में लिखना-बोलना अनिवार्य हो जायेगा। होना भी चाहिए। हिंदी हमारी राजकीय भाषा है। देश का बड़ा तबका हिंदी में ही अपनी बात कहता-सुनता है।  मेरा तो म

लिखो, लिखो, कुछ तो लिखो !

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ब्लॉग लिखने का बहुत बार मन किया। पर हर बार सवाल एक ही रहता कि क्या लिखूं? विषय मिल जाये, तो अगला सवाल कि कहां से शुरू करूं? फिर, किस भाषा में लिखूं? दिल की भाषा हिंदी है, लेकिन रौब तो अंग्रेजी का है। या कि हम अंग्रेजी जानते हैं तो हिंदी में क्यों लिखें? इस कशमकश में न जाने कितने प्रतिभाशाली लोग लेखक नहीं बन पाये। या उनके मन की बातें मन ही में रह गयीं। वे दुनिया से चले गये और अपने पीछे अपना कोई अनुभव नहीं छोड़ गये।  "Hundreds of topics are all around us to write upon," I told my daughter.   ऐसी गलती मैं क्यों करूं? मैं तो जन्मजात पत्रकार हूं। लेखक होने का सपना रखता हूं। पेशे से भी एक लेखक ही हूं। लेकिन अखबार की नौकरी करते हुए लिखना और खुद की खुशी के लिए लिखना दोनों अलग बातें हैं। खुद के लिए या अपने ब्लॉग के लिए लिखना एक अनुशासन का काम है। कोई डंडा लेकर नहीं खड़ा है सिर पर। नौकरी में तो प्रेशर रहता है- बॉस का। कैरियर का। डेडलाइन का। और, लालच रहता है- सम्मान का। तनख्वाह का। रुतबे का। आज बेटी ने यही सवाल दाग दिया। ब्लॉग लिखना है। किस लाइन पर लिखूं? विषय क्या रखूं? कह

गाटा लूप का बोतल वाला भूत

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लद्दाख के निर्जन पहाड़। मीलों तक आदमी नहीं। चिड़िया नहीं। जानवर नहीं। बस, आप और सड़क। कहीं-कहीं तो सड़क भी नहीं। सिर्फ ऊबड़-खाबड़ रास्ता। हिमालय का ठंडा रेगिस्तान। जीवन कठिन है इस भूभाग में। दिन तो खूबसूरत नजारे देखते बीत जाता है। लेकिन रात का क्या ? तब तो डर लगता है। भूत भी दिख सकता है। बशर्ते मन कमजोर हो। ऐसा ही एक स्थान है गाटा लूप। बीस तीखे मोड़ों वाली ऊंची चढ़ाई। मनाली से लेह के रास्ते में। नकीला पास से पहले। प्लास्टिक की सैकड़ों बोतलों का ढेर। बिस्किट के इक्का-दुक्का पैकेट भी। लाल झंडियों वाली एक गुफा जैसा कुछ। यह बोतल वाले भूत का बसेरा है। या कह लीजिए एक मंदिर। स्थानीय लोगों ने इसे मंदिर जैसा स्वरूप दिया है। हमने ड्राइवर से पूछा बोतलों का राज। पानी की बोतलें। इतनी सारी। आखिर क्यों? जवाब मिला, यहां एक प्यासा भूत रहता है। रात को गुजरते ट्रक ड्राइवरों को परेशान करता है। इस चक्कर में अनेक हादसे हो चुके हैं। भूत को खुश रखने के लिए ट्रक ड्राइवर यहां मिनरल वाटर की बोतलें रख देते हैं। कभी कभार बिस्किट भी। फिर, वे गुजर जाते हैं यहां से। सुरक्षित। किस्सा कुछ यूं है। कुछ साल पूर