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रुद्राक्ष योगी : संपादन से संन्यास तक

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फेसबुक पर एक पोस्ट ने यकायक मेरा ध्यान खींच लिया। एक संन्यासी का चेहरा जाना-पहचाना सा लगा। थोड़ा और सर्च की तो अहसास हुआ कि वे माधवकांत मिश्र जी ही थे। हालांकि, संन्यासी के रूप में उनका नाम महामण्डलेश्वर 108 श्री स्वामी मार्तण्डपुरी जी लिखा था। मेरा ध्यान 22 वर्ष पूर्व के काल खंड में चला गया, जब राष्ट्रीय सहारा में वे हमारे संपादक होते थे।  सहारा समूह के चेयरमैन सुब्रत राय हम सबके बीच नोएडा में ही अधिक रहते थे। सब उन्हें बड़े साहब कहते थे। हमने मिलकर राष्ट्रीय सहारा को सोचा हुआ आकार दिया। सहारा में पारिवारिक माहौल था। काम का उत्साह इतना रहता था कि मैं अवकाश वाले दिन भी दफ्तर पहुंच जाता था। काम में ही आनंद था। काम में ही संतुष्टि थी। ऐसे में माधवकांत जी का विनोदी स्वभाव। अकेले हों, या सबके बीच, सदैव ही हास्य और उमंग का वातावरण बना कर रखते थे।  माधवकांत जी इलाहाबाद से हैं और मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक हूं। एक यह भी संयोग था हमारे बीच। मैं विश्व दर्पण नाम से अंतर्राष्ट्रीय खबरों का पेज बनाता था। यह मेरी पसंद का काम था। तब इंटरनेट नहीं होता था। हम बीबीसी, सीएनएन आदि

त्रिउंड : धौलाधार पर्वत का शानदार ट्रैक

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पहाड़ों पर पर्यटन की बात ही कुछ और है। मैदानी इलाकों के लोग तो हसरत भरी निगाहों से देखते हैं पहाड़ों को। यह दूसरी बात है कि पहाड़ों पर रोजमर्रा की जिंदगी काफी मुश्किल होती है। भोजन, पानी, रोजगार और जरूरी चीजों की व्यवस्था के लिए वहां के निवासियों को काफी ऊपर-नीचे आना-जाना पड़ता है। फिर भी, दो-चार दिनों के लिए घूमने गये लोगों को तो पहाड़ लुभाते ही रहते हैं। मानो बुला रहे हों- आओ न। पिछले महीने मुझे धरमशाला जाने का मौका मिला। हिमाचल पर्यटन विकास निगम के धौलाधार होटल में एक कमरा पहले ही बुक करा लिया। धौलाधार नाम सुनते मैं रोमांचित हो उठा था। चंडीगढ़ से पंजाब के रास्ते हमने ऊना में प्रवेश किया और फिर सात घंटे की सडक़ यात्रा के बाद जा पहुंचे धरमशाला। अगले दिन बाजार में थोड़ी चहल-कदमी की। यहां-वहां विदेशी पर्यटक और बौद्ध भिक्षु नजर आने लगे। मन में बड़ी उत्सुकता थी मैक्लोडगंज देखने की। On the way we met some foreign tourists एक टैक्सी पकड़ मैं मैक्लोडगंज जा पहुंचा। हर तरफ तिब्बती लोग, तिब्बती बाजार, और विदेशी। वहीं एक ढाबे पर आलू का परांठा और दही खाने के बाद हम चल पड़े धरमकोट गा

जरूरत है जिम्मेदार पर्यटन की

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घूमने-फिरने से समझदारी बढ़ती है। विकास होता है। बोरियत पीछे छूटती है। यदि पर्यटन पहाड़ों पर हो तब तो कहने ही क्या। मन शांत होता है। प्रकृति का संग मिलता है। नवीन विचार आते हैं। तन-मन नयी ऊर्जा से भर जाता है। कायदे में तो हर किसी को साल में कम से कम एक बार हफ्ते-दस दिन के लिए किसी दूर स्थान पर घूमने चले जाना चाहिए। ऐसे ही, हर तीन-चार महीने में कोई छोटी यात्रा कर लेनी चाहिए।  यदि अच्छी सोच लेकर पर्यटन पर निकला जाये तो आनंद ही आनंद है। अपना भी भला और जहां आप जा रहे हैं वहां के निवासियों का भी भला। परंतु कुछ मनचले लोग पर्यटन को मनमाने और अराजक व्यवहार का परमिट मान बैठते हैं। अनैतिक ढंग से पैसा कमाने वाले लोगों में प्रकृति व आमजन को नुकसान पहुंचाने की प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है। ऐसे लोग सडक़ों, होटलों और पर्यटन स्थलों पर दिक्कतें खड़ी करने से नहीं चूकते।  उत्तराखंड में केदारनाथ, बद्रीनाथ एवं हेमकुंड जैसे पवित्र स्थानों पर जो कुछ हुआ है, उससे हमें बहुत सारे सबक लेने की जरूरत है। ये देव स्थान हैं। परंतु साधन संपन्न और आराम तलब लोगों ने इन स्थानों को ऐशगाह बना दिया। हिमालय के य

सरकारें क्यों छिपाती हैं मौसम की जानकारी?

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उत्तराखंड में बादल फटा। तबाही जारी है। तीन साल पहले लद्दाख में बादल फटा। भयानक तबाही हुई। इससे पहले उत्तरकाशी में भूकम्प और बारिश से बर्बादी हो चुकी है। सवाल उठता है कि मौसम विभाग को अंदाजा नहीं था कि भारी बरसात सिर पर है? प्रदेश और जिला प्रशासन को भी भनक नहीं थी? उत्तराखंड का आपदा प्रबंधन विभाग सो रहा था? या फिर वो आपदा आने के बाद ही काम शुरू करने के लिए बना है? भारत का आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, केंद्रीय जल आयोग, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय - ये सब एजेंसियां क्या कर रही थीं?  वन विभाग की मंजूरी के बिना नदी किनारे निर्माण मना है। फिर कैसे पहाड़ी क्षेत्रों में अनाधिकारिक निर्माण होते रहते हैं? वो भी नदियों के तट पर। खुद प्रदेश सरकार कह रही है कि बाढ़ से गिरे ज्यादातर मकान गैरकानूनी थे, इसलिए वे  मुआवजे के हकदार नहीं हैं। भई वाह। मकान गिरते ही पता चल गया कि गैरकानूनी है। ठीक-ठाक खड़ा था तब किसी को भनक नहीं थी। जाहिर है सबकी मिली भगत है। भ्रष्टाचार के चलते ही ये गड़बडिय़ां हैं। मेरे एक पत्रकार मित्र ने हाल ही में फेसबुक पर राज जाहिर किया कि सरकारें मौसम की सूचनाएं छिपाती हैं। खरा

मानसून : परेशानियों के पहाड़

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मानसून समय से पहले आ गया। आने की खबर से ही मन खुश हो गया। बूंदाबांदी शुरू हुई तो और अच्छा लगा। तपती गर्मी से राहत मिली। बालकनी में चाय-पकौड़ी ने बारिश का आनंद और बढ़ा दिया। परंतु दो-तीन  दिन बाद ही त्राहिमाम-त्राहिमाम होने लगा। पहाड़ों पर पानी ने जो कहर बरपाया वो दुखद है। खासकर उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में। जान और माल दोनों का भारी नुकसान हुआ है। तीर्थयात्राओं में विघ्न पड़ गया। श्रद्धालु जगह-जगह फंस गये। मकान, दुकानें और वाहन ऐसे बह गये, मानो खिलौने हों। पहाड़ों का यही दर्द है। बरसात हर साल होती है। कभी कम कभी थोड़ी ज्यादा। पर इस बार तबाही कुछ ज्यादा है। उत्तरकाशी में बादल फट गया। लगातार हो रही बारिश ने वहां जिंदगी को ब्रेक लगा दिया है। इससे पहले 1978 में बाढ़ और फिर 1991 में भूकम्प की त्रासदी झेल चुके ये पहाड़ फिर से घबराये हुए हैं। गंगा, मंदाकिनी, अलकनंदा और असी गंगा नदियां उफान पर हैं। ऋषिकेश में तो रामझूला के निकट शंकर जी की विशाल मूर्ति ही बह गयी।  उत्तराखंड के लोग पहले अपने पिछड़ेपन के लिए उत्तर प्रदेश को दोषी मानते थे। अब उत्तराखंड की अपनी सरकार है। अपने पहाड़ म

लद्दाख : ठंडे रेगिस्तान में सडक़ का सफर

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लद्दाख यानी जन्नत। एक ख्वाब। छोटा तिब्बत। दुनिया की छत। जम्मू-कश्मीर का बड़ा हिस्सा। बौद्ध धर्म का महत्वपूर्ण ठिकाना। पाकिस्तान व चीन का निशाना। आम हिंदुस्तानी जिसके बारे में ठीक से नहीं जानते। जहां सडक़ें सात माह तक बर्फ जमी होने के कारण बंद रहती हैं। जहां हिमालय की बर्फीली चोटियां एकदम पास होती हैं। सडक़ के दोनों ओर जहां सिर्फ बर्फ की दीवारें होती हैं। बरसात में जहां बारिश नहीं होती। जहां पहाड़ों पर घास का एक तिनका तक नहीं दिखता। जिसे लोग ठंडा रेगिस्तान कहते हैं। जहां चाय याक के दूध या फिर डिब्बाबंद दूध से बनती है। आकाश जहां नीला दिखता है। ऑक्सीजन जहां विरल होती है। जहां पर्यटक तेज चलते ही हांफने लगते हैं। वो लद्दाख। खबर है कि श्रीनगर-लेह राजमार्ग फिर बंद हो गया है। भूस्खलन की वजह से यातायात ठप है। कुछ दिन लग जाएंगे रास्ता साफ करते। काफी संख्या में लोग श्रीनगर से कारगिल होते हुए लेह पहुंचते हैं। सडक़ मार्ग से लेह जाने का यह एक सुगम रास्ता है। तीन दिन लग जाते हैं। वहां रात में सडक़ यात्रा की अनुमति नहीं होती। रात में विश्राम करना पड़ता है। परंतु यह यात्रा होती बेहद रोमांचक ह

दंत भला तो सब भला

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दांत में दर्द हुआ तो समय निकालना ही पड़ा। सुबह चाय पीने के बाद सीधे जा पहुंचा डेंटल क्लीनिक। भारत विकास परिषद ने एक काम अच्छा किया है। इनके मेडिकल सेंटर में चिकित्सक बड़ी लगन और सेवा भाव से काम करते हैं। दांतों के क्लीनिक की तो जितनी तारीफ की जाये कम है। बस भीड़ अधिक रहने की वजह से वहां बार-बार जाना पड़ता है। पर अब मैं उसकी परवाह नहीं करता। दांत ठीक रखना अब मेरी सर्वोच्च प्राथमिकता है। डेंटिस्ट ने दांतों पर एक सरसरी निगाह डाली और फरमान सुना दिया कि अधिकांश दांतों में फिलिंग होनी है। ब्रश तेजी से करने के कारण सभी दांत काफी हद तक कट चुके हैं। यदि देखभाल न की तो इनमें अधिक समस्याएं हो सकती हैं। समय बचाने के लिए मैं क्या, ज्यादातर लोग तूफानी गति से ब्रश करते हैं, वो भी सख्त रेशों वाला। किसे परवाह है ब्रश की बनावट की। लोग तो बस टूथपेस्ट के रंग और उसके  स्वाद पर ही ध्यान लगाते हैं। या फिर खरीद लाते हैं वो वाला टूथपेस्ट जिसका विज्ञापन अधिक आता है। स्कूल या घर पर भी इस बारे में खास नहीं बताया जाता। क्लीनिक में चार-पांच डेंटिस्ट हैं। सभी फीमेल और बेहद लगनशील और काबिल। वे न सिर्फ द

सामूहिक भोज का आनंद

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कई वर्षों पश्चात आज इस्कॉन मंदिर जाना हुआ। अच्छा लगा। खासकर पंगत में सबके साथ बैठकर प्रसादम ग्रहण करना। इसे भंडारा भी कह सकते हैं। खिले-खिले चावल, काले चने की सब्जी और हलवा। कागज की प्लेट सबके आगे रखी गयी। फिर बाल्टियों में भर कर लाया गया प्रसादम वितरित हुआ। पुरुषों को मंदिर के बेसमेंट में बिठाया गया और महिलाओं को बाहर टीन शेड के नीचे। कुछ वर्ष पहले सभी एक साथ इस शेड में ही बैठते थे। अब भक्तों की संख्या बढऩे से व्यवस्था में बदलाव लाजमी था। अब तो सायं आठ बजे से पहले भोजन के कूपन भी दिये जाने लगे हैं। कूपन देकर ही अंदर जाने की अनुमति मिलती है। मुझे यह नियम पता नहीं था और हम देर से भी पहुंचे थे। इसलिए पूछताछ करने पर मुझे ससम्मान पहली पंक्ति में बैठने दिया गया। कुछ ऐसा ही अनुभव बेटी का भी रहा। उन्हें भी बिना कूपन ही बैठने दिया गया। बेटी अपनी नानी के साथ वहां गयी थीं। इस्कॉन यानी इंटरनेशनल सोसायटी फॉर कृष्णा कांशसनेस नामक भक्ति आंदोलन की शुरुआत 1966 में स्वामी प्रभुपाद ने की थी। पहले न्यूयॉर्क और फिर दुनिया भर में घूम-घूम कर उन्होंने अकेले ही कृष्ण भक्ति का प्रचार किया। गीता औ