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दही-जलेबी की तरह गायब है भाई-बहन का रिश्ता !

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  इंदौर जाऊं और दही-जलेबी-पोहा न खाऊं, ऐसा कैसे हो सकता है? रक्षाबंधन आ गया। सगे भाइयों के राखियां बंधेंगी। मुंहबोले भाइयों का जमाना तो गया। अब न कोई बनना चाहता है, न बनाना। कम से कम टीवी देख कर तो यही लगता है। रियेलिटी प्रोग्राम हों या कपिल शर्मा जैसे शो, सब यही दिखाते हैं कि किसी लड़की को बहन कहना बेकार बात होती है। यहां तक कि, लड़िकयां भी नहीं चाहतीं किसी को भाई बनाना। यह नये जमाने का शगल है कि भाई-बहन का मुंहबोला रिश्ता दही-जलेबी के नाश्ते की तरह दुर्लभ हो गया है। एक वजह यह भी है कि आज के लड़कों में दम नहीं होता है भाई बनने का। फुस्स टाइप के पटाखे क्या खाके बनेंगे किसी लड़की के भाई? उसके लिए दमखम चाहिए होता है। बहन मुश्किल में हो तो रक्षा करने के लिए। करेक्टर चाहिए होता है। संस्कार चाहिए होते हैं। आत्म-अनुशासन चाहिए होता है। मर्दानगी चाहिए होती है महिलाओं का सम्मान करने के लिए। यह सब होता नहीं, तो पिचकू लड़के ब्वॉय फ्रेंड बनके ही खुश हो लेते हैं। लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार घटिया और ओछे किस्म के लोग करते हैं। यह चरित्रहीनता की पराकाष्ठा है। चंडीगढ़ के प्रतिष्ठित चित्रकार

खुश रहने के कितने पैसे लगते हैं?

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वर्तमान में जिएं  और   प्रसन्न रहें  : भिक्खू संघसेना एक पत्रकार मित्र की फेसबुक पोस्ट देखी तो मैं सोच में पड़ गया। उनकी पत्नी ने लिखा था - ' एक अच्छी फैमिली फोटो , क्योंकि हम अक्सर एक साथ समय नहीं बिता पाते हैं और एक शादी के मौके पर हम आज इतने खुश हैं , जितना पहले कभी नहीं थे … बंगाली शादियां होती ही ऐसी हैं , वे आपको बेहद खुश कर देती हैं। ' मित्र पत्रकार हैं , तो जाहिर है कि परिवार को कम ही समय दे पाते होंगे। पत्रकारों का जीवन होता ही ऐसा है। दुनिया भर की खुशियों और गम में शरीक होते हैं , पार्टियों में जाते हैं , देश - विदेश भी घूम आते हैं , लेकिन अकेले ही। न तो इतनी छुट् ‌ टी मिल पाती है , न इतने पैसे होते हैं कि मनचाहे ढंग से परिवार के साथ घूम - फिर सकें। कहीं दूर चले भी गये तो वापस लौटने पर कुर्सी मिलेगी या छिन जायेगी , इसकी धुकधुकी अलग से लगी रहती है। शाम दफ्तर में बीतती है और पूरा शहर जब सो जाता है , तब घर वापस

पहाड़ से भी मुश्किल होता है पहाड़ा

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उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में मेरे गांव 'पलई' की हमारी एक यात्रा पंद्रम- पंद्रा , दूनी तीस, तिंयां पैंतुल्लाह, चौका साठ, पना पिचत्तर, छक्का नब्बे, सत्ते पांच, अट्ठे बीस, नेमा पैंतीस, धांईं पचास ! आज की गूगल जैनेरेशन क्या जाने पहाड़ा क्या होता है। स्कूलों में इसे अब टेबल कहा जाता है। लेकिन बच्चों को आज के तथाकथित 'मॉडर्न एवं महान' स्कूल हिंदी में गिनती नहीं सिखाते  हैं । फिर सब्जी खरीदते समय या टीवी पर समाचारों में छप्पन, तिरानवे या तिहत्तर जैसी संख्याएं सुनकर नये बच्चों का सिर चकराता है कि यह कौन से ग्रह की भाषा बोली जा रही है। भारत में बड़े हो रहे आज के किशोरों और युवाओं की यह एक बड़ी कमजोरी है। बड़ी तकलीफ झेलनी पड़ती थी हमें पहाड़ा याद करने में। चार दशक पहले पहाड़ा याद करना जरूरी होता था। इसके बिना तो गुजारा ही नहीं था। गणित के सवाल हल करने के लिए पहाड़ा याद होना आवश्यक था। शायद चौथी-पांचवी कक्षा से ही पीछे पड़ गया था पहाड़ा। पहाड़ से भी मुश्किल होता था पहाड़ा। पिताजी अध्यापक थे। पहाड़े के मामले में तो वे किसी कर्नल जैसा रुख अपनाते थे। बिजली चली जाती थी तो कुछ

चिड़ियाघरों में जीव-जंतुओं संबंधी किताबें भी मिलनी चाहिए

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दलाई लामा की निगाह में करुणा यानी कम्पैशन सबसे महत्वपूर्ण मानवीय गुण है। पशु-पक्षियों के मामले में तो यह और भी सटीक है। वे बोल कर अपनी परेशानी हमें नहीं बता सकते। मूक जीवों के प्रति दया और करुणा का भाव रहे, इसके लिए जागरूकता जरूरी है। चिड़ियाघर इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। देश भर में करीब डेढ़ सौ चिड़ियाघर एवं प्राणी उद्यान हैं। खुली हवा, घना जंगल उत्तरी भारत का एक बड़ा चिड़ियाघर चंडीगढ़ से 20 किलोमीटर की दूरी पर छतबीड़ में है। यह पंजाब सरकार के अधीन है और जीरकपुर के नजदीक स्थित है। वर्ष 1970 में इसका निर्माण शुरू हुआ और 13 अप्रैल 1977 को तत्कालीन राज्यपाल, महेंद्र मोहन चौधरी ने इसका उद्घाटन किया। उन्हीं के सम्मान में इसे महेंद्र चौधरी जूलॉजिकल पार्क नाम दिया गया। शुरू में कुछ जानवरों को असम के गुवाहाटी जू से लाया गया था। यह कई हेक्टेयर क्षेत्र में फैला एक सुव्यवस्थित चिड़ियाघर है, जहां 100 से अधिक किस्म के वृक्ष हैं और सैकड़ों प्रजातियों के 1300 से अधिक जीव-जंतु यहां रहते हैं। पैदल घूमने का आनंद पार्क में बैटरी चालित वाहनों पर बैठकर यहां से वहां जा सकते हैं

चलो साथ चलते हैं

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सतारा* खिसक लिया अठारह आ गया धीमा था वो साल मंथर गति धीमी प्रगति आर्थिक मोर्चे पर विफल प्रदूषण में अव्वल जीएसटी का जाल बाजार बेहाल प्याज-टमाटर लाल रेल हादसे बाबाओं के जंजाल। दस साल बीत गये दुनिया की मंदी को सुना है अब कुछ होगा वक्त बदलेगा डॉलर दौड़ेगा रुपया भी चलेगा। एक जनवरी शुरू है दिन सोमवार है दस बज गये कोहरा बरकरार है ऐसा ही चलेगा खास नहीं बदलेगा बादशाह जो भी बोले देश को बुखार है। चलो साथ चलते हैं एक-एक कदम बढ़ते हैं उम्मीद पर दुनिया कायम है यही सोचकर गहरी सांस लेकर फिर हिम्मत करते हैं नये साल को नये जज्बे से दिल से सलाम करते हैं। (* पंजाब में सत्रह को सतारा बोलते हैं) Email: narvijayindia@gmail.com