सामूहिक भोज का आनंद


कई वर्षों पश्चात आज इस्कॉन मंदिर जाना हुआ। अच्छा लगा। खासकर पंगत में सबके साथ बैठकर प्रसादम ग्रहण करना। इसे भंडारा भी कह सकते हैं। खिले-खिले चावल, काले चने की सब्जी और हलवा। कागज की प्लेट सबके आगे रखी गयी। फिर बाल्टियों में भर कर लाया गया प्रसादम वितरित हुआ। पुरुषों को मंदिर के बेसमेंट में बिठाया गया और महिलाओं को बाहर टीन शेड के नीचे। कुछ वर्ष पहले सभी एक साथ इस शेड में ही बैठते थे। अब भक्तों की संख्या बढऩे से व्यवस्था में बदलाव लाजमी था।

अब तो सायं आठ बजे से पहले भोजन के कूपन भी दिये जाने लगे हैं। कूपन देकर ही अंदर जाने की अनुमति मिलती है। मुझे यह नियम पता नहीं था और हम देर से भी पहुंचे थे। इसलिए पूछताछ करने पर मुझे ससम्मान पहली पंक्ति में बैठने दिया गया। कुछ ऐसा ही अनुभव बेटी का भी रहा। उन्हें भी बिना कूपन ही बैठने दिया गया। बेटी अपनी नानी के साथ वहां गयी थीं।


इस्कॉन यानी इंटरनेशनल सोसायटी फॉर कृष्णा कांशसनेस नामक भक्ति आंदोलन की शुरुआत 1966 में स्वामी प्रभुपाद ने की थी। पहले न्यूयॉर्क और फिर दुनिया भर में घूम-घूम कर उन्होंने अकेले ही कृष्ण भक्ति का प्रचार किया। गीता और कृष्ण की शिक्षाओं पर आधारित इस आंदोलन से अब विश्व भर में 10 हजार संन्यासी और ढाई लाख बाहरी भक्त जुड़े हुए हैं। साढ़े तीन सौ केंद्र, 60 ग्रामीण समुदाय, 50 स्कूल और 60 भोजनालय संचालित हैं।

इस्कॉन के मंदिरों में प्रात: साढ़े चार बजे से ही आरती और कीर्तन शुरू हो जाता है। कुछ-कुछ अंतराल के बाद यह सिलसिला सायं साढ़े आठ बजे तक जारी रहता है। रविवार का पूजा, कीर्तन व प्रवचन कार्यक्रम 9 बजे कृष्ण प्रसादम के साथ संपन्न होता है। बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुष और बच्चे मंदिर के भक्तिमय वातावरण में साफ-सुथरे फर्श पर पालथी मारकर बैठते हैं। हॉल के एक ओर पुरुष और दूसरी ओर महिलाएं।


कीर्तन में ढोलक व मजीरा के साथ तालियां बजाते हुए प्रसन्नतापूर्वक 'हरे कृष्णा, हरे कृष्णा, कृष्णा कृष्णा हरे हरे। हरे रामा, हरे रामा, रामा रामा हरे हरे। महामंत्र का जाप किया जाता है। सोलह शब्दों का यह महामंत्र व्यक्ति को आध्यात्मिक चेतना प्रदान करता है। इस्कॉन में प्याज, लहसुन, मदिरा, धूम्रपान, मांसाहार आदि व्यसनों से दूर रहने की शिक्षा दी जाती है।

एक साथ सैकड़ों लोगों के साथ पंक्ति में बैठकर भोजन करने का आनंद ही कुछ और है। इससे भाईचारा बढ़ता है और साधारण जीवन जीने की भावना प्रबल होती है। अनुशासन पैदा होता है। सामुदायिक एकता को बल मलता है और व्यक्ति के अंदर समानता की भावना पैदा होती है। समाज में शांति और समानता बनाये रखने के लिए इस तरह के आयोजन होते रहने चाहिए। बीच-बीच में ऐसे आयोजनों में भाग भी लेते रहना चाहिए। मन को प्रसन्न रखने में ऐसे आयोजन बड़ी भूमिका निभाते हैं।     

                                                                                                     

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