कौवे ही क्या, सभी पक्षियों को जीने का हक है

ननिहाल के गांव में बीते थे बचपन के दिन। ढाक के पत्तों से जूते बनाते थे हम। पाकड़ के चौड़े पत्ते की फिरकी। और खेतों की जुताई के समय मामाजी के साथ पूरा दिन ट्रैक्टर की सवारी। मटर के खेत में मस्ती करते थे। मीठी हरी मटर छील कर खाते थे। उसके नीले, बैंगनी चटख फूलों के बिछौने पर लेट जाते थे। 

शमशान वाले पेड़ पास में ही थे। कभी कभार वहां किसी की चिता भी रही होगी। मैंने देखा किसी को नहीं। पर, उधर जाते हुए डर सा लगता था। रात तो छोडि़ए, दिन में भी। घने वृक्षों पर मोरों का बसेरा था। ओह, क्या बोलते थे वो। केऊ केऊ की आवाजें रात में बहुत आती थीं। और, तीसरे पहर को पुड़ुकिया की आवाज। अब हम उसे पेंडुकी कहते हैं। मटमैले रंग की इस चिडिय़ा को कुछ लोग फाख्ता भी बोलते हैं। उसकी आवाज बड़ी निराशाजनक होती थी। सुस्ताई सी दोपहरी। ढलता सूरज। ऊपर से खीज पैदा करने वाली कुकुऊकू.. कुकुऊकू। मुझे पेंडुकी नहीं पसंद। तभी से।

पिता जी सरकारी शिक्षक थे। उनका तबादला होता रहता था। दबंग किस्म के थे। हाथ में बेंत। चमड़े का बैग। छोटी तराशी हुई मूंछें। ऊपर को काढ़े हुए बाल। किसी रौबदार दारोगा जैसे दिखते थे। तभी तो देर रात के सफर में बीच राह फंस जाने पर ट्रक वाले भी उन्हें फटाफट लिफ्ट दे देते थे। ज्यादातर रात को ही चला करते थे। कई बार मैंने भी उनके साथ ट्रकों की सवारी की। रात में बस न हो तो ट्रक ही सही। मंजिल पर पहुंचना ही लक्ष्य होता था उनका। एक बार तो मुझे ट्रेन के डिब्बे में बैठा छोड़ नीचे उतर गये पानी-वानी लेने। इतने में ट्रेन चल दी। मुझे कुछ समझ नहीं आया। फिर देखा हर डिब्बे के पास जाकर विजय-विजय आवाज लगा रहे थे। उन दिनों वे रामपुर में पोस्टेड थे। लाइसेंसी बंदूक भी थी उनके पास। और मेज पर कई तरह के रामपुरी चाकू भी रखते थे सजाकर। 

एक सुबह जोरदार ठांय की आवाज से मेरी नींद खुल गयी। गोली चली थी। पिताजी ने ही चलाई थी। लेकिन क्यों? पता चला एक कौवा मार दिया। उसे मार कर उन्होंने एक लकड़ी में टांग दिया छत के ऊपर। थोड़ी देर में सैकड़ों कौवे आ गये उधर। कांव कांव कांव। बड़ा शोर था। मैंने विस्मय से पूछा कि कौवा क्यों टांगा? मुझे बताया गया कि अब हमारे घर में कौवे नहीं आएंगे। मेरे हाथ से अक्सर रोटी छीन ले जाता था कौवा। और भी बदमाशियां करते थे वो। पेड़ पर लगे पके अनार खा जाते थे। तब तो कुछ समझ नहीं आया। परंतु अब मैं समझता हूं कि पर्यावरण को दुरुस्त रखने और ईको-सिस्टम को चलाये रखने में प्रत्येक जीव-जंतु का योगदान होता है। तभी संतुलित रहती है प्रकृति और धरती का जीवन चक्र। इसलिए, कौवा मारने की इस प्रवृत्ति की मैं अब निंदा करता हूं और सभी लोगों से प्रार्थना है कि सभी जीव-जंतुओं को जीने दें। उन्हें मारें नहीं। उन्हें सताएं नहीं। खाएं तो हर्गिज नहीं। मनुष्य को मांसाहारी होने की कतई आवश्यकता नहीं है। शाकाहारी बनें, सभी जीवों का सम्मान करें। सभी ईश्वर की बनायी अनमोल रचनाएं हैं।  

कश्मीर में सेना की जीप पर एक पत्थरबाज को बंधा देखा तो कौवे का किस्सा याद आ गया। सही में, फिर किसी ने पत्थर नहीं फेंके उस काफिले पर। इमरजेंसी की स्थिति में यही एक उपाय था सेना के युवा कमांडर के पास। इसलिए उस पर कानूनी कार्रवाई का कोई तुक बनता नहीं। पत्थर फेंकोगे तो सजा भी मिलनी चाहिए। मानवाधिकारों का मामला आ जाता है, वरना तरीका नायाब था। पत्थर फेंक-फेंक कर उत्पात मचा रखा था कुछ बदमाशों ने कश्मीर में। शुक्र है कि धारा 370 समाप्त किये जाने के बाद अब वहां ऐसे उत्पात नहीं होते।

Contact: Narvijay Yadav, E: narvijayindia@gmail.com

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