कविता : लॉकडाउन के पहाड़
चलो कहीं
फिर दूर
चलें, रेतीले सागर
के ऊपर,
पथरीले मंजर
पर ढूंढें, कुछ सपने,
शांति सरीखे
हम।
उन पर्वत
शिखरों से
मिलने, फिर भाग
चलें, फिर
दौड़ चलें,
उन अनदेखे
विस्तारों से, फिर आंख-मिचौली
कर लें
हम।
उस सतरंगी से पानी की, वो झील बुलाती है अक्सर
उत्तुंग हिमालय की चोटी, से नाता जोड़ें चलके हम।
अब मत रोको, रोकोना तुम, हमको कोरोना रोको ना
को को रो रो, कोरोना तु्म, जाने दो, नहीं रुकेंगे हम।
- नरविजय यादव
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें