चिड़ियाघरों में जीव-जंतुओं संबंधी किताबें भी मिलनी चाहिए


दलाई लामा की निगाह में करुणा यानी कम्पैशन सबसे महत्वपूर्ण मानवीय गुण है। पशु-पक्षियों के मामले में तो यह और भी सटीक है। वे बोल कर अपनी परेशानी हमें नहीं बता सकते। मूक जीवों के प्रति दया और करुणा का भाव रहे, इसके लिए जागरूकता जरूरी है। चिड़ियाघर इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। देश भर में करीब डेढ़ सौ चिड़ियाघर एवं प्राणी उद्यान हैं।

खुली हवा, घना जंगल
उत्तरी भारत का एक बड़ा चिड़ियाघर चंडीगढ़ से 20 किलोमीटर की दूरी पर छतबीड़ में है। यह पंजाब सरकार के अधीन है और जीरकपुर के नजदीक स्थित है। वर्ष 1970 में इसका निर्माण शुरू हुआ और 13 अप्रैल 1977 को तत्कालीन राज्यपाल, महेंद्र मोहन चौधरी ने इसका उद्घाटन किया। उन्हीं के सम्मान में इसे महेंद्र चौधरी जूलॉजिकल पार्क नाम दिया गया। शुरू में कुछ जानवरों को असम के गुवाहाटी जू से लाया गया था। यह कई हेक्टेयर क्षेत्र में फैला एक सुव्यवस्थित चिड़ियाघर है, जहां 100 से अधिक किस्म के वृक्ष हैं और सैकड़ों प्रजातियों के 1300 से अधिक जीव-जंतु यहां रहते हैं।

पैदल घूमने का आनंद
पार्क में बैटरी चालित वाहनों पर बैठकर यहां से वहां जा सकते हैं। दिन भर के लिए इसका चार्ज रु. 50 प्रति व्यक्ति है। हालांकि, हमने पैदल चलना उपयुक्त समझा। आजकल के जीवन में पैदल चलना और टहलना किसी लग्जरी से कम है क्या? कभी आलस्य में, कभी दिखावे में आकर, और प्राय: समय की कमी के कारण लोग किसी न किसी मोटर वाहन में चलना ही पसंद करते हैं। शारीरिक गतिविधियों के अभाव में फिर मोटापा, डाइबिटीज और हृदय रोग हमें अपनी गिरफ्त में लेने लगते हैँ।

इतना बड़ा होता है टाइगर
अंदर घुसते ही एक विशालकाय टाइगर को अपने बाड़े के बाहर शान से इधर-उधर घूमते देखा। वह शानदार था। कुछ गुस्से में दिख रहा था। दूसरा टाइगर पास में ही सो रहा था। काफी देर तक टहलने और दर्शकों को देखने के बाद टाइगर यकायक नीचे खाई की ओर बढ़ा। बस तभी हम वहां से खिसक लिए। कौन जाने कब वो छलांग लगाकर बाहर आ जाता और लोगों पर हमला कर देता। खाई में पानी भी नहीं था। न जाने उस टाइगर के दिमाग में क्या चल रहा था उस वक्त।


एक निश्चित दायरे में घूमता है हायना
एक बाड़े के बाहर हमें लकड़बग्घा गोल-गोल तेजी से चक्कर लगाता दिखा। वो इतना तल्लीन होकर तेज-तेज चल रहा था, मानो ऐसे चलते हुए जल्दी ही मंजिल पर पहुंच जायेगा। बीच-बीच में पीछे मुड़ कर भी देख लेता था, मानो जांच रहा हो कि कितना चल लिया। इस हायना के इस तरह चलते रहने से गोल-गोल पगडंडियां बन गयी थीं। न जाने कितने महीनों या सालों से वो इसी तरह रोज चलता होगा।


खेलता मिला गोल-मटोल भालू
एक अन्य विशाल बाड़े में एक हिमालयन भालू लकड़ी के एक लट्‌ठे से इतना मगन होकर खेल रहा था, गोया करतब दिखाने की किसी प्रतियोगिता में भाग ले रहा हो। लुढ़कते-पुड़कते उसकी एक ही कोशिश थी कि लकड़ी नीचे न गिरे। खुद गिर जाता था लेकिन लकड़ी को संतुलित रखता था। इस खेल में कई मिनट तक दर्शक हंसते-मुस्कराते उलझे रहे। इन तीन प्राणियों ने तो मानो पैसे वसूल करा दिए। जू में सभी प्राणी स्वस्थ दिखाई दिये। स्वच्छता भी पर्याप्त नजर आयी।


लॉयन सफारी पहले जैसी नहीं रही
खराब तब लगा जब प्रति व्यक्ति रु. 50 का टिकट लेकर हम लॉयन सफारी की बस में सवार होकर अंदर गये। कुछ वर्ष पूर्व सफारी में दो दर्जन से अधिक शेर होते थे। हम तो इसी इम्प्रेशन में टिकट लेकर वहां गये थे। लेकिन अभी तो सफारी में मात्र तीन-चार ही शेर हैं। हमें सड़क किनारे सिर्फ एक बूढ़ा शेर ही बैठा मिला। चिड़ियाघर की तरफ से यह ठगी जैसा मामला लगा। टिकट विंडो पर शेरों की संख्या का उल्लेख भी होना चाहिए, ताकि दर्शक अंदर जाकर न पछताएं।

जीव-जंतुओं की किताबें मिलनी चाहिए
अंदर-बाहर पेटीस-सेंडविच और कॉफी-चाय के कुछ ठिकाने हैं। बेहतर होता यदि खाने-पीने की कुछ और वैरायटी उपलब्ध होतीं। फास्ट फूड ही क्यों? सादा राजमा-चावल या दाल सब्जी-रोटी का इंतजाम भी तो किया जा सकता है। जीव-जंतुओं के बारे में और अधिक जानकारी के बोर्ड लगाये जाने चाहिए। जागरूकता बढ़ाने के लिए यह जरूरी है। पशु-पक्षियों के बारे में किताबों का एक स्टाल भी लगाया जा सकता है। ऐसा करने पर जू की आमदनी बढ़ेगी और लोगों को अच्छी किताबें पढ़ने और खरीदने को मिलेंगी। बच्चों के टिकट में छूट होनी चाहिए। फिलहाल तो एक टिकट रु. 60 का है। चंडीगढ़ से आने-जाने के लिए बसों की व्यवस्था में सुधार होना चाहिए और इसके बारे में प्रमुख अखबारों में सूचना भी छपते रहना चाहिए। फिलहाल तो ज्यादातर लोग अपनी कारों से ही जू देखने जाते हैं, क्योंकि पब्लिक ट्रांसपोर्ट के बारे में शायद ही किसी को जानकारी हो।



narvijayindia@gmail.com / twitter @narvijayyadav

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