चालीस साल पहले ऐसा आखिर क्या हुआ था ?

 


श्री अशोक शुक्ला प्रांतीय प्रशासनिक सेवा (पीसीएस) के एक वरिष्ठ अधिकारी हैं और इन दिनों उत्तर प्रदेश सरकार के राजस्व बोर्ड में सहायक भूमि सुधार आयुक्त के पद पर लखनऊ में पदस्थ हैं। हमारी फेस-टु-फेस मुलाकात तो नहीं हुई, परंतु फेसबुक पर हम साथ हैं। कोविड से उबरने संबंधी मेरी पिछली पोस्ट पर इनकी एक चौंकाने वाली टिप्पणी पढ़ने को मिली। इनका कमेंट पढ़ लीजिए, फिर बताता हूं कि माजरा क्या है।

''नरविजय यादव, बदायूं - यह वो नाम है जिससे मैंने 42 वर्ष पूर्व भयंकर जलन अनुभव की थी, जब नरविजय जी का बनाया अनोखा रेल पटरी का जोड़ उत्तर प्रदेश की राज्य स्तरीय विज्ञान प्रदर्शनी में प्रथम स्थान पर चयनित हुआ था। दरअसल मैंने उस प्रदर्शनी के लिए गुरुत्व शक्ति पर आधारित एक ऐसे इंजन का खाका तैयार किया था जो लगातार स्थितिज ऊर्जा को गतिज उर्जा में बदल सकता था। मेरा प्रोजेक्ट गढ़वाल एवं कुमाऊं मंडल (उत्तराखंड) से चयनित होकर प्रदेश स्तर पर पहुंचा था! लेकिन राज्य स्तर पर यह मात्र सांत्वना पुरस्कार तक पहुंच सका..! पहले उत्तराखंड भी उत्तर प्रदेश का ही एक हिस्सा था।

समय के साथ, सफल हो पाने की टीस जाती रही, लेकिन नरविजय जी का नाम मेरे जेहन से कभी नहीं मिट सका..! जब कभी बदायूं शहर का कोई निवासी मिलता तो मैं उनसे नरविजय जी का जिक्र करना नहीं भूलता था। ऐसे में एक बार, बदायूं के ही एक अन्य नरविजय यादव पुलिस उपाधीक्षक के रूप में उसी तहसील में  तैनात हुए जहां मेरी पोस्टिंग थी, तो मुझे पूरा यकीन सा हो गया था कि हो हो ये वही वाले नरविजय हैं। लेकिन उनसे मुलाकात के बाद मेरा भ्रम टूट गया। लेकिन आपका जिक्र मैंने उनसे भी किया था।

कुछ वर्ष पूर्व बरेली में सिटी मजिस्ट्रेट के रूप में मेरी तैनाती हुई। बरेली कॉलेज में बच्चों के लिए आयोजित एक कार्यक्रम में मैंने अपने छात्र जीवन की यह घटना सुनायी और उसके साथ नरविजय जी के अनोखे रेल जोड़ की चर्चा की, तो कार्यक्रम में मौजूद एक अध्यापिका ने मुझे बताया कि आप जिन नरविजय जी का जिक्र कर रहे हैं, वे तो एक वरिष्ठ पत्रकार हैं और चंडीगढ़ में रहते हैं। इसके बाद मैंने सोशल मीडिया में आपको खोजा और आपका फेसबुक फ्रेंड बन गया!

आपकी जैसी वैज्ञानिक सोच वाले बालक को साइंटिस्ट के स्थान पर कुछ और बनना पड़े इसके लिए अपनी शिक्षा व्यवस्था को दोष दिए बगैर मेरी टिप्पणी समाप्त नहीं है सकती..! यह भी एक संयोग है कि उस प्रदर्शनी के बाद मेरा भी रुझान पत्रकारिता की ओर हो गया था और कुछ वर्षों तक मैंने उत्तरकाशी से जनसत्ता, पर्वतीय टाइम्स और जनलहर आदि अखबारों के लिए रिपोर्टिंग भी की। उसके बाद लोक सेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षाओं की ओर मुड़ गया! आप नित नए आयामों को छुएं इसी कामना के साथ शेष फिर..! ''अशोक शुक्ला, पीसीएस

दरअसल, यह किस्सा 1979 का है। विज्ञान में मेरी गहरी रुचि थी। विज्ञान प्रगति, वैज्ञानिक, विज्ञान और आविष्कार आदि कुछ पत्रिकाएं मैं डाक से मंगा कर पढ़ा करता था। अखबारों में तब विज्ञान समाचार न के बराबर छपते थे। राजकीय इंटर कॉलेज, बदायूं में नौवीं कक्षा में था तब। जिला विज्ञान प्रदर्शनी के लिए मॉडल प्रस्तुत करने को कहा गया। मैंने सुधरी हुई बैलगाड़ी का एक मौलिक विचार मॉडल के रूप में पेश किया। इसे लेकर हम बरेली में कमिश्नरी लेवल की प्रदर्शनी में पहुंचे। इसकी सराहना तो हुई, लेकिन मॉडल बड़ा होने के कारण मैं बाकी साथियों के साथ बरेली नहीं घूम पाया। मन ही मन सोचा कि अगले साल हल्का मॉडल लेकर आयेंगे ताकि मार्केट में घूमने में आसानी रहे।

अगले साल, मैंने एक बिल्कुल ही नया विचार पेश करने का मन बनाया। यह एक ऐसे रेल जोड़ के बारे में था, जिससे ट्रेन चलते समय होने वाली खट-खट की आवाज रोकी जा सकती थी। इसके कुछ अन्य फायदे भी होते। आरी व हथोड़ी की मदद से खुद ही नये रेल जोड़ का एक मॉडल तैयार किया। यह एक क्रांतिकारी विचार था और लखनऊ में आयोजित राज्य स्तरीय प्रदर्शनी में इसे प्रथम पुरस्कार और गोल्ड मैडल मिला। हर ओर इसकी व्यापक चर्चा हुई। उस दौर की कई पत्र-पत्रिकाओं में इसका जिक्र हुआ, जिनमें धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, नंदन, मेला, बालक, विज्ञान प्रगति, आविष्कार, भारतीय रेल, उत्तर प्रदेश (सूचना विभाग की साप्ताहिक पत्रिका), अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, आज व पाटलिपुत्र टाइम्स आदि प्रमुख हैं। बाद के वर्षों में कुछ अन्य वैज्ञानिक विचार पेश किये, जिन्हें खासा समर्थन मिला।

नये प्रकार का रेल जोड़ तो इतना लोकप्रिय हुआ कि देश भर से मुझे हर रोज़ औसतन 25 चिटि्ठयां मिलने लगीं। इस फैन मेल में मेरे हमउम्र स्टूडेंट, इंजीनियर, वैज्ञानिक सभी के पत्र होते थे। रेल मंत्रालय, आकाशवाणी, दूरदर्शन, आरडीएसओ लखनऊ, पेटेंट विभाग, भारतीय स्टेट बैंक, दिल्ली विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय आदि तक में इसकी चर्चा रही। इससे जुड़ी अन्य कहानियों का जिक्र विस्तार से फिर कभी।





टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बदायूं का पेड़ा जो छह महीने तक फ्रेश रहता है

शानदार रहा न्यूज इंडस्ट्री में 33 वर्षों का सफर

सोशल मीडिया पर रुतबा कायम रखना आसान नहीं