भविष्य लघु व डिजिटल पत्रिकाओं का है: डॉ. प्रकाश हिंदुस्तानी

ब्लॉगर्स एलायंस की 37वीं टि्वटर चैट में पत्रिकाओं के धड़ाधड़ बंद होते जाने पर फोकस रहा। इस सत्र के खास मेहमान थे - वरिष्ठ पत्रकार, संपादक, ब्लॉगर डिजिटल मीडिया विशेषज्ञ एवं लेखक डॉ. प्रकाश हिंदुस्तानी, जो तीन दशकों से भी अधिक समय से नवभारत टाइम्स, नई दुनिया, वेब दुनिया, प्रजातंत्र आदि अनेक प्रकाशनों व टीवी चैनलों को अपनी सेवाएं देते आये हैं। उनकी पुस्तक – पर्सनल ब्रांडिंग, स्टोरीटेलिंग एंड बियोंड – खासी चर्चा में रही है, जिसमें डॉ. अमित नागपाल सह-लेखक हैं। डॉ. हिंदुस्तानी भारत में हिंदी वेब पत्रकारिता के अग्रणी रहे हैं। उन्होंने डिजिटल मीडिया में ही पीएचडी की। मीडिया उद्यमी नरविजय यादव ने उनसे वार्ता की। प्रस्तुत हैं टि्वटर चैट के मुख्य अंश:

कोविड-19 काल में प्रिंट मीडिया की क्या स्थिति है?

फेक न्यूज से सम्बंधित क़ानून, राजनैतिक दबाव और विज्ञापनों से होनेवाली आय की कमी आदि के चलते प्रिंट मीडिया अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा हैं। पत्र-पत्रिकाओं का वितरण कठिन हो गया है। प्रिंट मीडिया को कोविड 19 ने बहुत नुकसान पहुंचाया। लॉकडाउन और कर्फ्यू के कारण अखबारों का प्रसार गिर गया और विज्ञापनों की भारी कमी हो गयी। विज्ञापन ही अखबारों की आय का मुख्य स्रोत हुआ करता है। कोविड 19 ख़त्म हो जाए, तब भी पत्र-पत्रिकाओं  की हालत सुधरने में समय लगेगा। स्वतंत्र मीडिया को बचाना कठिन होगा। या तो सभी समाचार पत्र बंद हो जायेंगें या फिर किसी अरबपति के हाथ की कठपुतली बन जायेंगे। 

क्या कोरोना का पत्रिकाओं पर ज्यादा असर पड़ा?

अखबार और पत्रिकाओं दोनों पर ही बुरा असर पड़ा कोरोना का, लेकिन पत्रिकाओं पर कुछ अधिक प्रभाव पड़ा, क्योंकि अखबार तो लोगों की आदत में काफी हद तक शामिल रहे थे. जबकि पत्रिकाओं के सामने पहले से ही संकट मौजूद था।

किस तरह की पत्रिकाएं सबसे ज्यादा प्रभावित हुई हैं?

जनरल कैटेगिरी  की पत्रिकाएं सबसे ज्यादा प्रभावित हुई हैं।  समाचार पत्रिकाएं और वे पत्रिकाएं जिनका विकल्प अखबार आसानी से बन सकते हैं, वे  पाठकों की कमी का शिकार हो गयीं।  कोरोना काल में मिडिल क्लास की आय काम हो गयी और बचत के नाम पर कई परिवारों ने पत्रिकाएं खरीदनी बंद कर दीं। यानी कॉस्ट कटिंग का ज्यादा असर पत्रिकाओं पर पड़ा।

पिछले कुछ वर्षों में बंद होने वाली पत्रिकाएं कौन-कौन सी हैं?

हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप अपनी लोकप्रिय पत्रिका- साप्ताहिक हिन्दुस्तान बहुत पहले बंद कर चुका था। हाल ही में इसने कादम्बिनी और नंदन भी बंद कर दी। आनंद बाज़ार पत्रिका समूह की सन्डे, रविवार, मेला आदि काफी पहले बंद हो चुकी थीं। इलाहाबाद के मित्र प्रकाशन ने वर्षों पहले माया, मनोरमा और मनोहर कहानियां जैसी अत्यधिक लोकप्रिय पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद कर दिया था। पिछले वर्षों में सभी भाषाओँ की पत्रिकाएं एक-एक करके बंद हुई हैं, जिनमें हिन्दी की सबसे ज़्यादा हैं। टाइम्स ऑफ़ इण्डिया ग्रुप पहले ही पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद करता आया है। धर्मयुग, इलेस्ट्रेड वीकली, यूथ टाइम्स, साइंस टुडे, दिनमान, सारिका, पराग इसकी बेहद लोकप्रिय पत्रिकाएं हुआ करती थीं। अब ये गुजरे जमाने की बात हो गयी।

पत्रिकाओं के बंद होने से क्या परिवर्तन हुआ है?

पत्रिकाओं के डिजिटल एडिशन चल पड़े हैं।  नये-नये ऍप भी गये हैं। दर्जनों भाषाओँ की हज़ारों पत्रिकाओं को अब आसानी से डिज़िटल रूप में पढ़ा जा सकता है। अब ये सस्ती हैं और इनके वितरण की समस्या भी नहीं है। पाठकों के लिए भी इनकी उपलब्धता आसान हो गयी है।

बंद हुई पत्रिकाओं का पाठकों के सामने क्या विकल्प है?

राहत की बात है कि अभी भी इण्डिया टुडे, पाखी, हंस, आलोचना, अहा ज़िन्दगी, परिकथा, नया ज्ञानोदय, दुनिया इन दिनों, वीणा आदि पत्रकाएं प्रकाशित हो रही हैं और पढ़ी जा रही हैं।

किन भाषाओँ की पत्रिकाओं पर ज़्यादा असर पड़ा ?

सभी भाषाओं की पत्रिकाएं बंद हुई हैं। बड़े ग्रुप्स की भी बंद हुई हैं। भारतीय भाषाओं जैसे हिंदी, मराठी, बांग्ला, तमिल, तेलुगु, उर्दू, मलयालम की भी पत्रिकाएं बंद हुई हैं। हिन्दी की बहुतेरी पत्रिकाओं पर ताला लग चुका है, तो कई बंद होने के कगार पर हैं।

लघु पत्रिकाओं पर लोग ध्यान नहीं देते थे, अब इनकी क्या स्थिति है?

सच तो यह है कि भविष्य अब सिर्फ लघु पत्रिकाओं का ही है। इसके कई कारण हैं - एक तो उनके ओवरहेड्स कम हैं, जिससे इनका प्रकाशन आसान है। दूसरी बात यह कि इनके प्रकाशन में पाठकों की भागीदारी ज़्यादा है। लघु पत्रिकाओं का प्रकाशन एक मिशन की तरह होता रहा है। उनमें से कई तो किसी ख़ास विचारधारा को लेकर प्रकाशित हो रही हैं, लेकिन कई के उद्देश्य साहित्यिक और स्थानीय भी हैं। कविता को लेकर भी कुछ पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं।

अब लोकप्रिय पत्रिकाओं का भविष्य कैसा है?

अब भविष्य डिजिटल पत्रिकाओं का ही है। लोगों की आदतें बदल गयी हैं। कोरोना काल में यह ज़्यादा हुआ है। यह और बात है कि इनमें वह नॉस्टैल्जिया नहीं। वह रोमांटिसिज़्म नहीं है। बड़े प्रकाशन समूहों की दिक्कत यह है कि उन्हें सालाना टर्नओवर में लाखों नहीं, करोड़ों का मुनाफ़ा चाहिए। यह इस दौर में आसान नहीं है। धर्मयुग, इलस्ट्रेटेड वीकली, माया, मनोहर कहानियां, सन्डे आदि पत्रिकाएं मैनेजमेंट की गलतियों के कारण बंद हुयीं।

Twitter @P_Hindustani @NarvijayYadav 

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