चाय की चर्चा

मिलने-जुलने और बात करने के तरीके लगातार बदल रहे हैं। राम-राम जी, नमस्ते, प्रणाम से गुड मॉर्निंग और हाय-हैलो तक आ गये। खिचड़ी, समोसा, पूड़ी-परांठा से चलते हुए पिज्जा व नूडल खाने लगे। पर एक चीज ऐसी है, जिसने बचपन से आज तक हमारा साथ नहीं छोड़ा। जी, वो है चाय। न इसके बनाने का तरीका बदला, न पीने-पिलाने का। 



हमारे घर में चाय को एक उत्सव की तरह लिया जाता था। तुलसी के पत्ते और चुटकी भर नमक मिली चाय का समय नियत था। सुबह की चाय सात बजे और शाम को ठीक चार बजे। घड़ी देखे बिना हम बता सकते थे कि चाय का टाइम हो गया या नहीं। स्कूल के दिनों में कैरोसिन के स्टोव पर बनते अजवाइन के परांठे और फिर तुलसी-अदरख वाली चाय। आज भी याद है अजवाइन का वो स्वाद और चाय की चुस्कियां। स्कूल बस छूट न जाये, इसलिए मम्मी गरम चाय को प्लेट में डालकर ठंडा कर देती थीं। 

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के दिनों में पुराना कटरा की चाय बड़ी खास होती थी। बड़े-बड़े भगौनों में खौलती चाय में वे कोई खास मसाला डालते थे। इसे पीने के लिए छात्रावासों के लड़के देर रात तक कुरता-पाजामा पहने इंतजार करते दिख जाते थे। बैंच के दोनों ओर पैर करके दोस्त के आमने-सामने बैठकर गिलास में पीते थे यह चाय। फिर इंदिरा गांधी से लेकर, क्लास में चल रही लव स्टोरी, सिविल सेवा परीक्षा, पीएमटी, कैमिस्ट्री के खड़ूस प्रोफेसर तक न जाने क्या-क्या डिस्कस कर लेते थे।

लद्दाख में महाबोधि कैम्पस में गुरुजी से मिलने जाओ, तो बड़े प्यारे छोटे-छोटे कपों में चाय सर्व की जाती है। ग्रीन टी के विकल्प तो वहां दर्जनों हैं। चीन वाली चाय, हांगकांग की चाय, श्रीलंका की चाय - और न जाने क्या-क्या। पांच-पांच मिनट बाद आपके कपों में चाय रिपीट की जाती है। तिब्बत और लद्दाख में बटर टी भी खूब चलन में है। नमकीन चाय खूब सारे बटर के साथ उबाल कर बनायी जाती है।

सुबह सवेरे मुझे बड़े कप में चाय चाहिए ही चाहिए। दिन की बेहतरीन शुरुआत तभी हो पाती है। चाय के साथ दो-तीन रस्क और ट्विटर अपडेट। उसके बाद दिन के बाकी काम और दुनियादारी। अखबार की अब उतनी तलब नहीं लगती, क्योंकि खबरों के हैडलाइन तो ट्विटर पर हर वक्त मिलते ही रहते हैं। लेकिन चाय की तलब हमेशा लगती है। और हर कहीं लगती है। कॉफी नहीं, चाय, सिर्फ चाय।  


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